Sunday, June 17, 2012

जाने क्यूँ?



मैं लिख रहा हूँ बस लिखने की खातिर। मैं जब अकेला होता हूँ, मेरा मन कहीं टिक के नहीं  रहता। मैं कुछ कुछ सोचता रहता हूँ। एक ख्याल के ऊपर दूसरा ख्याल जैसे duster से कोई blackboard पे लिखते लिखते मिटा देता हो। मैं क्या सोचता हूँ और क्यूँ? ये तो शायद मैं भी नहीं जानता। शायद दिमाग को जीने के लिए ख्यालों की जरुरत होती है।
BMTC बस मैं सफ़र करते हुए अक्सर मुझे मजदूर मिल जाते हैं जो दो वक़्त की रोटी के लिए भी जद्दोजेहत कर रहे हैं। उनको देख के मैं अपने को खुशनसीब मानता हूँ। ऐसा क्या मैंने किया जो मुझे इतना कुछ मिला और उनसे ऐसा क्या गुनाह हो गया। जब मुस्कुराते हुए उन्हें टीवी की दूकान के बहार देखता हूँ। सहसा मेरे अन्दर दया का भाव उमड़ पड़ता है। जनता हूँ ये गलत है पर जाने क्यूँ? सोचता हूँ इनके सपनों  को किनकी नज़र लग गयी है। कितनी छोटी छोटी चीज़ें इनको ख़ुशी देती हैं। मेरे घर मैं 32 इंच का LCD TV  है, पर वो भी मैंने आजतक इतने चाव से नहीं देखा। पर फिर लगता है मैं क्या इनसे अलग हूँ। बस मेरे सपने ही तो अलग हैं। पर क्या कोई ये सोचता होगा की मेरे सपनों  को किसकी नज़र लगी है? जाने क्यूँ मैं सोचने लगता हूँ?

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