कुछ बातों से अनजाने ही बचपन याद आ जाता है। ऐसी ही है नागार्जुन और निराला जी की ये कवितायें। पता नहीं कौन सी क्लास में पड़ी थी। इतना याद है की आगे गौड़ मैडम इसे समझा के सुना रही थी और मैं चुपचाप इनके संसार में कहीं खो गया था।
गुलाबी चूड़ियाँ
प्राइवेट बस का
ड्राइवर है तो
क्या हुआ,
सात साल की
बच्ची का पिता
तो है!
सामने गियर से
उपर
हुक से लटका
रक्खी हैं
काँच की चार
चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार
के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो
झटका
अधेड़ उम्र का
मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला:
हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ
नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है
कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों
के सामने
मैं भी सोचता
हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा
दूँ इनको यहाँ
से?
और ड्राइवर ने एक
नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र
उसे देखा
छलक रहा था
दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी
आँखों में
तरलता हावी थी
सीधे-साधे प्रश्न
पर
और अब वे
निगाहें फिर से
हो गईं सड़क
की ओर
और मैंने झुककर कहा
-
हाँ भाई, मैं
भी पिता हूँ
वो तो बस
यूँ ही पूछ
लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं
भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी
चूड़ियाँ!
~नागर्जुन
वो तोडती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर --
वह तोड़ती पत्थर ।
कोई न छायादार
पेड़, वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार;
सामने तरु - मालिका, अट्टालिका, प्राकार ।
चड़ रही थी धूप
गरमियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गयी
प्रायः हुई दुपहर,
वह तोड़ती पत्थर ।
देखते देखा, मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्न-तार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोयी नहीं
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार ।
एक छन के बाद वह काँपी सुघर,
दुलक माथे से गिरे सीकार,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा --
"मैं तोड़ती पत्थर"
- निराला